तुझ से बिछड़ कर,
जब खुद को पाया;
तब जाकर अपनी,
पहचान का लम्हा;
अपने करीब आया !
लोग अतिशों से,
उजाला कर रहे थे;
लेकिन मैंने मिट्टी,
का दिया अपनाया !
एक पल थी तब,
एक सदी पर भारी;
तेरी चाहत में ऐसा,
भी लम्हा आया !
पाँव छलनी थे,
वफ़ा मेरी घायल थी;
जाने क्यूँ उस मोड़ पर,
भी तेरा पता याद आया !
एक लम्हे के,
वस्ल का जादू;
तुझमे समाए तो,
समझ में आया !
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