तेरे साथ चलती हूँ तो जहान साथ आता है ,
जब तुझ से दूर रहती हूँ तो जहान खाने को दौड़ता है ;
मेरे दर्द के हवाले से कितना बा-ख़बर है वो ,
मेरे बिन बहाए ही वो मेरी आँखों के आँसू चुन लेता है ;
तीख़ी धूप ही तो मिलती है ज़र्द ज़र्द मौसम में ;
कल किसने कहा की तीख़ी धूप में मोहब्बत निखर जाती है ;
तू ही बता ख़ाक-ए-दिल तुझे ले कर अब कहाँ कहाँ जाऊँ ,
हूँ तो मैं ज़मीं की मगर दिल आसमान पर आता क्यों है ;
मैं हिज्र के सातों समुंदर को पार कर के आई हूँ ,
गर अब भी तू ना मिला तो मरने का ख्याल आता है ;
जब अदा-ए-वहशत के मिज़ाज़ पर मैं चलती हूँ ;
तो गुलों से भरा सारा गुलिस्ताँ मुझ से रूठ जाता है ,
नज़्म में मेरी जब भी ये जहान उसको देखता है ,
इश्क़ और मोहब्बत से चिढ़ने वाला ये जहान जल-भून जाता है !
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