जन्मदिन !
आज ही के दिन रात के लगभग,
इसी वक़्त जब घडी में आठ बजकर
दस मिनट हो रहे थे;
मैं भी अपनी माँ के गर्भ से निकल
कर उनके पैरों में आ गिरा था,
जैसे गर्म तवे पर सिंकने के लिए
एक आटे की लोई आ गिरती है;
जो होती है बिलकुल नर्म-नर्म,
जिसे समय खुद-ब-खुद आकार
देता है;
जैसा विधाता ने लिखकर भेजा होता है,
उसका भाग्य जिसे करना ही होता है,
उसे सहर्ष स्वीकार और कितने गर्व
की बात है;
कि हर एक बच्चा गवाह होता है,
अपने माँ-और पिता के अनुराग का,
ठीक वैसे ही जैसे;
आज कोई मुझे चाहे या ना चाहे
लेकिन हूँ तो मैं भी निशानी अपने
माँ-पिता के प्रेम और अनुराग का ही !
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