माँ !
जिंदगी नाम की जो ये किताब है,
उस किताब की जिल्द "माँ" है;
जब किताब की जिल्द फट जाती है,
उस किताब के पन्ने भी जल्द बिखर जाते है;
इसलिए किताब की जिल्द को संभाल,
कर रखने की जिम्मेदारी भी हम-सब की है;
ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जिल्द अपने,
पन्नो को रखती है बाहरी परिवेश से संभाल कर;
जिल्द बिना इस ज़िन्दगी नामक किताब,
की कल्पना भी जैसे बेमानी सी लगती है;
मोह ममता के सारे ताने-बानो से बनी ये जिल्द,
अपने पन्नों को सदा खुद में थामे रखती साथ है;
क्योंकि माँ नुमा ये जिल्द अपने पन्नों,
को कभी बिखरते हुए नहीं देख सकती है !
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