खिले हैं गांवों में भी,
नफरत के फूल धीरे-धीरे;
जैसे पांव की धुल पहुँचती है,
सरों तक बड़े धीरे-धीरे;
अभी कुछ महीने लगेंगे,
उन पेड़ों पर फल आने में;
फिर बदल जायेंगे लोगों,
के पाले भी धीरे-धीरे;
घाटे के कोई रिश्ते नाते,
उम्र भर कायम नहीं रहते;
टूट ही जाता है एक ना एक दिन,
झूठ का रिश्ता भले ही धीरे-धीरे;
उसे जुर्म इकरार करने दो पहले,
फिर हर इलज़ाम वो कर ही लेगा,
कुबूल अपने भले ही धीरे-धीरे;
गर ऐसा ना हुआ तो ये धरती भी,
एक ना एक दिन बंज़र हो जाएगी,
गुलों की जगह बबूल ले लेंगे धीरे-धीरे !
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