प्रेम के बीज फिर बोने चली हूँ
तुम्हे तुम्हारा तुम लौटाने चली हूँ
जुनूँ की ओर अपने क़दम बढ़ाने चली हूँ
कली से अब मैं फूल होने चली हूँ
ये मुमकिन तो नज़र आता नहीं है
मैं ना-मुमकिन को मुमकिन करने चली हूँ
समंदर आ गया मेरे मुक़ाबिल है
जब उस ने देखा मैं सूखने चली हूँ
यही नेकी मुझे ज़िंदा रखती है
कि बोझ मैं अपनों का ढोने चली हूँ
मुज़्तरिब ख़ुद को पा कर भी रहती हूँ
यही सोच कर अब मैं खुद को खोने चली हूँ
तेरी याद आँखों में मेरी उतर आई है
तुझे पाने के लिए मैं अब सोने चली हूँ
खुद की हिद्दत में अब मैं जलने लगी हूँ
तेरे प्रेम की झमाझम बारिश में नहाने चली हूँ !
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