तुम्हारे अधरों की सुवास !
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सुनो ये जो चाँद है
ना ये जब आसमान
में नहीं दिखता तब
भी चमकता है कंही
ओर जैसे मेरी नींद
मेरी आँखों में नहीं
होती तो भी वो होती है
वंहा तुम्हारी आँखों में
क्योकि वो जिस डगर
से चलकर आती है ठीक
उसके मुहाने पर ही बैठी
रहती है तुम्हारी वो दो
शैतान बड़ी-बड़ी और
कारी-कारी आँखें और
वही तुम्हारी ऑंखें मेरी
आँखों की नींद को धमका
कर रोक लेती है अपनी ही
आँखों में और फिर पूरी रात
मैं जगता हुआ तुम्हारे अधरों
की सुवास की कोरी छुवन को
अपनी आँखों की किनारी से
उतर कर मेरे आंगन में एक
लौ की तरह टिमटिमाते हुए
देखने के लिए मेरी ज़िन्दगी
के स्वरुप में जंहा तुम अंकित
होती हो मेरे जीवन पृष्ठ पर
मेरी ही ज़िन्दगी के रूप में !
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