कुछ तो शेष रह जाये !
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स्वाभिमान का दम्भ
भरने वाला वो लड़का
कैसे और क्यों तुम्हारी
इतनी लापरवाहियां के
बावजूद भी बंधा है अब
-तक तुम्हारे मोह-पाश में;
कैसे और क्यों तुम्हारी
इतनी बेपरवाहियों के
बावजूद भी उसके इश्क़
का रंग अब-तक फीका
फीका नहीं पड़ा;
कैसे और क्यों तुम्हारी
इतनी नजरअंदाज़ीयों के
के कारण वो तुमसे खफा
होकर चला तो जाता है तुमसे
कोसों दूर फिर भी क्यों लौट
आता है वो हर शाम फिर से
एक बार तुम्हारे पास;
देखो शायद उसने अब गिरा दी है
अपने उसी स्वाभिमान की ऊँची-
ऊँची दीवारें जिसका वो पहले हर
पल यु दम्भ भरता फिरता था;
इसलिए ही तुम्हारी सारी
लापरवाहियां,बेपरवाहियाँ,
और नज़रअंदाज़ीयाँ दीवारों
के उस पार निकल जाती है;
पर सुनो इतना ख्याल रखना
कुछ तो शेष रह जाये उसमे
पहले जैसा वर्ण कंही ऐसा ना
हो की एक दिन तुम ही उसे
पहचान ना पाओ इतने सारे
बदलाव के बाद !
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