चाहतों का गाला घोंट दो !
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कितनी उम्र गुजारनी
पड़ती है अकेले हमें
एक हमसफ़र पाने को
और फिर एक दिन अचानक
कैसे गतिमान होता है
हमारा अकेलापन उस
हमसफ़र को पाने को
लेकिन ये हम में से
कितनो को पता होता है
की उस हमसफ़र तक
पहुंचने के बाद मिल ही
जायेगा हमारी चाहत को
पूर्णतः पूर्ण विराम या
फिर दुनियावी दिखावे
और सामाजिक वर्जनाओं
के दायरे में हम घोंट देंगे
गाला हमारी चाहत का !
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