तुम्हे कराह सुनाई नहीं देती !
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तुम बात करती हो
मेरे घर के दरवाज़ों
और मेरे घर की खिड़कियों
के खड़खड़ाने की जो दिख
जाती है तुम्हे पर तुम ये तो
बताओ की तुम्हे मेरी इस रूह
की कराह सुनाई क्यों नहीं देती;
या तुम इंतज़ार कर रही हो
मेरा की कब मैं अपने ही वक्ष
को अपने ही हाथों चीरकर क्यों
दिखला देता तुम्हे की देखो इसमें
कितनी कराह छुपी है;
तुम बात करती हो
मेरे घर के दरवाज़ों
और मेरे घर की खिड़कियों
के खड़खड़ाने की जिसकी
आवाज़ें तो सुन जाती है
तुम्हे पर ये तो बताओ तुम
की तुम्हे इस हृदय की पीड़ा
सुनायी क्यों नहीं देती;
या इंतज़ार कर रही हो
उन धड़कनो का जो धड़क
धड़क कर एहसास दिलाती है
मुझे मेरे जीवित होने का उनके
रुक जाने का स्वतः ही;
तुम बात करती हो
मेरे घर के दरवाज़ों
और मेरे घर की खिड़कियों
के खड़खड़ाने की जिसकी
आवाज़ें तो सुन जाती है
तुम्हे पर ये तो बताओ तुम
क्या तुम्हे नहीं दिखते वो मेरे
अधूरे स्वप्न जो दिन ब दिन
उम्र पा कर बूढ़े हो रहे है;
या इंतज़ार कर रही हो
उस घडी का जब ये चलने
फिरने के काबिल नहीं रहेंगे
या उस वक़्त का जब इनके
घुटनो को बदलवाने का
वक़्त आ जायेगा !
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