Wednesday, 28 November 2018

मेरे विस्तार की साख !

मेरे विस्तार की साख !
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मैं तो जब भी 
करती हूँ तुमसे 
बातें तब ही अपने 
आप को पूर्णतः पा 
लेती हूँ उसमे ना कोई
दिखावा,ना कोई छलावा
ना ही बनावट ना किसी   
तरह की कोई सजावट 
उस पल तो मैं बस अपने 
मन की परतों को खोलती 
जाती हूँ और तब तुम भी 
मेरे साथ-साथ मंद-मंद 
मुस्कुराते हो सिर्फ अपने 
होंठो के कोरों से और मेरी 
मस्ती मेरी चंचलता मेरा 
अल्हड़पन मेरा अपनापन 
मेरा यौवन तुम थाम लेते हो 
अपने हांथो में तब मैं सिहर 
उठती हूँ दूजे ही पल नाज़ुक 
लता सी लिपट जाती हूँ तुमसे 
मानकर तुम्हे अपने स्वयं के 
विस्तार की साख ! 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !