शाम खाली हाथ लौट गयी !
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वो तुम्हारे वादे वाली
शाम कब की आकर,
खाली हाँथ लौट गयी;
सुनो तुम्हे पता है क्या ?
फिर उसके पीछे-पीछे
सितारों वाली उजियारी,
रात भी बिन गुनगुनाये
ही भरे दिल से लौट गयी;
सुनो तुम्हे पता है क्या ?
फिर एक नयी आस वाली
भोर आयी जो किसी को बिन,
कुछ बताये उनमुनि सी लौट गयी;
सुनो तुम्हे पता है क्या ?
फिर एक नयी दोपहर भी उन
सब की ही तरह बैरंग लौट गयी
और उसके ठीक पीछे-पीछे वही
तुम्हारे वादे वाली शाम आयी;
सुनो तुम्हे पता है क्या ?
काफी देर इधर-उधर अकेली
टहलती रही और टहलती रही
फिर थक कर के कुछ देर अपने
घुटनों में सर छुपाये भी बैठी रही;
सुनो तुम्हे पता है क्या ?
काफी देर ढीठ की तरह बैठी रही
पर रात जब उसके सर पर आकर
खड़ी हो गयी तब बे-मन से कुछ
मन ही मन बड़बड़ाते हुए लौट गयी !
सुनो तुम्हे पता है क्या ?
गर ना हो पता तो कर लो पता
मुझे नहीं लगता अब वो शाम फिर
कभी लौट कर आएगी तुम्हारे द्वार !
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