Monday, 5 November 2018

शब्दों में पिरोता हु तुम्हे !

शब्दों में पिरोता हु तुम्हे !
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शब्द शब्दों में तलाशते है 
मुझे और मैं उन शब्दों में 
पिरोता हु तुम्हे जैसे रात 
होकर पत्तों सी टटोलती 
है खुद पर शबनम को और
चाँद जुगनू सा होकर मंद 
-मंद ढूंढता है अपनी चकोर 
को ठीक वैसे ही जैसे नदी 
खामोश किनारों को पकड़कर 
खल-खल बहती है खोजते हुए 
अपने अथाह समंदर को और 
दूर कंही संन्नाटों के जंगल में 
सुनाई देता है खनकते शब्दों 
का मध्यम शोर थके से किनारों 
की पगडंडियों के उस छोर पर 
तकते बढ़ते वो दो कदम जो 
अपने कदमो में मिलाकर मेरे 
कदम थामते है मुझे और मैं 
उन क़दमों में पा लेता हु तुम्हे 
फिर शब्द शब्दों में तलाशते है 
मुझे और मैं उन शब्दों में एक 
बार फिर से पिरोता हु तुम्हे !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !