वो तुम्हारे किये गए वादों वाली शाम भी ,
कब की आकर खाली हाँथ लौट गई ;
फिर उसके पीछे-पीछे सितारों वाली उजियारी ,
रात भी बिन गुनगुनाये ही भरे दिल से लौट गई ;
फिर एक नयी आस वाली भोर आयी भी और ,
बिन कुछ बताये उनमुनि सी हो कर लौट गयी ;
फिर एक नयी दोपहर भी आकर बैरंग ही लौट गयी ,
उसके ठीक पीछे पीछे तुम्हारे वादे वाली शाम आई ;
काफी देर इधर-उधर अकेली ही टहलती रही और ,
फिर थक कर अपने घुटनों में सर छुपाये ही बैठी रही ;
फिर काफी देर अकेले ढीठ की तरह वहीँ बैठी रही ;
फिर बे-मन से कुछ मन ही मन बड़बड़ाते हुए लौट गयी ;
गर ना हो पता तो कर लो पता मुझे नहीं लगता अब ;
वो शाम फिर कभी लौट कर आएगी तुम्हारे द्वार !
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