ये मेरी बरबस बरसती ऑंखें !
हर घड़ी दर्द की शिद्दत से,
बिलखती है ये मेरी आँखें;
हिज्र की आग में हर लम्हा,
पिघलती है ये मेरी आँखें;
एक लम्हे की खता हुई और,
सारी उम्र का रोग लगा लिया;
अब उस की सूरत को ही हैं,
हर वक़्त तरसती ये मेरी आँखें;
ख्वाहिश-ए-दिल में अब तक,
मचलती है उसकी अदाएं;
तेरी ख़ुश्बू से मुसलसल अब,
ये महकती है मेरी आँखें;
मेरे ख्वाबों में ठहरा हुआ है,
अल्हड नदी का वो मंज़र;
और उसी नदी किनारे हैं,
अब भटकती ये मेरी आँखें;
अब तो आग सी टपकती है,
हर एक हिज़्र के मंज़र से;
हिज़्र-ए-मंज़र की तपिश से ही,
सुलगती है ये मेरी आँखें;
मोहब्बत आबाद हुई या,
हुई है नाकाम मेरी;
रह गईं अहल-ए-वफ़ा मुँह देखते,
तभी तो बरसती ये मेरी आँखें;
कभी सामने पा कर भी उसे,
उसे ही ना देखने की मज़बूरी;
गर ये हक़ीक़त हो जाए "राम"
तो फिर संभाले नहीं संभालती ये मेरी ऑंखें !
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