मेरे उमंगो का फागुन !
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प्रभातकाल के चित्ताकर्षक दिनकर
सा ही तो है मेरा प्रेम,
जो आकांक्षा के अभीष्ट का रक्तवर्ण,
लिये निकलता है प्रतिदिन;
तुम्हारे अस्तित्व के आसमान पर,
अपनी धरा को हर हरा रखने की,
सा ही तो है मेरा प्रेम,
जो आकांक्षा के अभीष्ट का रक्तवर्ण,
लिये निकलता है प्रतिदिन;
तुम्हारे अस्तित्व के आसमान पर,
अपनी धरा को हर हरा रखने की,
अभिलाषा लिए
हरित और गाढ़ा है
हरित और गाढ़ा है
मेरे उमंगो का फागुन;
तभी तो अभी तक नहीं लगने दिया,
तभी तो अभी तक नहीं लगने दिया,
कोई और रंग अब तक तुम पर,
क्योकि जो रंग उतर जाए धोने से,
क्योकि जो रंग उतर जाए धोने से,
वह रंग भी भला कोई रंग होता है क्या;
मैं तो रंगूँगा तुम्हें अपने प्रेम के सुर्ख रक्तवर्ण से,
जो कभी छूटेगा नहीं,
फिर इसी रक्तवर्ण के रंग में,
लिपट कर तुम आओगी मेरे घर,
और इसी सुर्ख रक्तवर्ण में लिपटे जायेंगे,
भी दोनों साथ एक जोड़े में;
ये रंग जो जन्मों तक अक्षुण्ण रहेगा,
रंगो के अनगिनत समन्दर समाए होंगे,
मेरी उस छुअन में जो तुम,
अपने कपोलों पर हर दिन महसूस करोगी;
मेरी उस छुअन में जो तुम,
अपने कपोलों पर हर दिन महसूस करोगी;
तब सैंकड़ो इंद्रधनुष सिमट आऐंगे,
तुम्हारी कमनीय काया पर तब,
मैं बजाऊँगा उस दिन चंग और,
तुम गाना अपने प्रेम का अमर फाग;
लोग पूछे तो गर्व से कहना उस दिन,
अपने प्रेम का रंग आज डाला है मेरे "राम" ने मुझ पर !
मैं बजाऊँगा उस दिन चंग और,
तुम गाना अपने प्रेम का अमर फाग;
लोग पूछे तो गर्व से कहना उस दिन,
अपने प्रेम का रंग आज डाला है मेरे "राम" ने मुझ पर !
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