सबल समृद्ध नारी है वो !
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तू जिसको कभी कहता था,
वो तेरी सखी और सहेली है;
खुद-ब-खुद से ही वो बात करती,
आज वो खुद की ही सहेली है;
आखिर कब तू उसको जानेगा,
क्या ऐसी वो अनसुलझी पहेली है;
हर एक दुःख और दर्द वो झेली है,
आज वो दर्द की बिसात पर फैली है;
तेरे जंहा को जो महकाती है,
वो वही चंपा और चमेली है;
अपनी परिधि में जो समेटे तुझे,
वो उन्ही उठे हाथों की दुआ है;
जिसमे निकलता तो सारा जंहा है,
फिर भी आज वो क्यों रहस्मय हवेली है ?
करे वो जो तेरे भी बस में नहीं है,
हाँ वो आज की सबल समृद्ध नारी है;
फिर भी आज वो दूसरी पसंद क्यों है,
गर वो दुर्गा है तो सिर्फ नौ दिन की क्यों है ?
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