मेरा इश्क़
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इश्क मेरा हर्फों,
में उतरता रहा;
मैं पागल था,
उम्र भर लिखता रहा ;
छू रहे थे हर्फ,
लोगों के दिलों को मगर ;
मैं बस चंद वाह,
वाही लूटता रहा;
छू रहे थे हर्फ,
लोगों के दिलों को मगर ;
मैं बस चंद वाह,
वाही लूटता रहा;
अगर भूख होती तो,
कब की मिट गई होती,
मैं था मोहब्बत का प्यासा,
रेगिस्तान में द्रव्यवती ढुंढता रहा ;
बदलते है लोग यहां,
मौसमों की ही तरह;
रंग मेरा भी निखरा पर,
मैं उसके रंग में ढलता रहा;
बदलते है लोग यहां,
मौसमों की ही तरह;
रंग मेरा भी निखरा पर,
मैं उसके रंग में ढलता रहा;
उसको जल्दी थी,
उसने बदल ली मंजिल मगर,
मैं समंदर की ही तरह,
अपनी नदी का इंतजार करता रहा !
उसने बदल ली मंजिल मगर,
मैं समंदर की ही तरह,
अपनी नदी का इंतजार करता रहा !
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