सच का स्वरुप !
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कई बार जब
अपने ज्ञान के
चक्षुओं से देखता हु;
तो याद आता है
कि सच का स्वरुप
तो एक होता है;
चाहे वो सच तुम्हारा
हो या वो सच मेरा हो
या हो वो किसी ओर
का तो भी;
पर हम दोनों के लिए
तो अब तक वो स्वरुप
दो अलग-अलग ही रहा;
और जंहा सच के स्वरूप
ही दो हो वंहा समय अपनी
बात कुछ इस तरह से कह
जाता है कि;
बदल जाते है रिश्तों के
मायने फिर आखिर कैसे
टिके वो रिश्ते जिनमे सच
के स्वरुप दो होते है !
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