मेरी आकंठ प्यास !
तुम्हारे छूने भर से
नदी बन तुम्हारे ही
रग-रग में बहने को
आतुर हो उठती हूँ !
तुम बदले में रख देते
हो कुछ खारी-खारी बूंदें
मेरी शुष्क हथेलियों पर
जो चमकती हैं !
तब तक मेरी इन
हथेलियों पर जब तक
तुम साथ होते हो मेरे !
तुम्हारे दूर जाते ही
लुप्त हो जाती है
ठीक उस तरह
जैसे सूरज के
अवसान पर
मृगमरीचिका
लुप्त हो जाती है !
तब मेरी आकंठ प्यास
को तुम्हारी वो कुछ
खारी-खारी बूंदें भी
अमूल्य लगने लगती है !
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