Saturday 31 August 2019

मेरी आकंठ प्यास !


मेरी आकंठ प्यास !

तुम्हारे छूने भर से 
नदी बन तुम्हारे ही 
रग-रग में बहने को 
आतुर हो उठती हूँ !
तुम बदले में रख देते 
हो कुछ खारी-खारी बूंदें
मेरी शुष्क हथेलियों पर 
जो चमकती हैं !
तब तक मेरी इन 
हथेलियों पर जब तक 
तुम साथ होते हो मेरे !
तुम्हारे दूर जाते ही 
लुप्त हो जाती है 
ठीक उस तरह 
जैसे सूरज के 
अवसान पर 
मृगमरीचिका 
लुप्त हो जाती है ! 
तब मेरी आकंठ प्यास 
को तुम्हारी वो कुछ 
खारी-खारी बूंदें भी 
अमूल्य लगने लगती है !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !