Tuesday, 13 August 2019

मेरी शाख !


मेरी शाख !

मैं तो जब भी करती हूँ 
तुमसे बातें तब ही मैं 
अपने आप को पा लेती हूँ 
न दिखावा , न छलावा,
न बनावट ,  सजावट ,
मैं बस अपने मन की 
परतों को खोलती जाती हूँ
और मेरे साथ साथ उन छनो 
में तुम भी मंद-मंद मुस्कुराते हो
अपनी अँखिओं के कोरों से 
मेरी मस्ती मेरी चंचलता 
मेरा अल्हड़पन मेरा लड़कपन 
मेरा बचपना मेरा अपनापन व 
मेरा यौवन तुम थाम लेते हो 
अपने दोनों हांथो में तब  
मैं काँप जाती हूँ 
और नाज़ुक लता सी 
लिपट जाती हूँ मानकर 
तुम्हे अपनी शाख !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !