क्यों इतने सारे क्यों है !
क्यों रात की ये कालिमा है
क्यों रौशनी से तपता दिन है
क्यों आसमा ही ओझल है
क्यों हवा सूखी और मद्धम है
क्यों लम्हे दर-दर बिखरे हैं
क्यों यादों के प्रतिबिम्ब धुंधले है
क्यों आँहे कराहें हो रही है
क्यों दिन बीत ही नहीं रहे है
क्यों एक नयी सुबह की ख़्वाहिश है
क्यों अब लेटे रहना भी मुश्किल है
क्यों अकेले चलते रहना अब भारी है
क्यों भटके भटके से ये पदचिन्ह है
क्यों हर एक पल आँखों से ओझल है
क्यों परछाइयाँ एक ही दुरी पर अडिग है
क्यों अब सारी तस्वीरें चुभती सी हैं
क्यों सिमटे जीवन अब प्रतिदिन है
क्यों सिर्फ एक तेरे साथ न होने से
कितने कुछ पर क्यों लग रहा है !
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