Sunday 1 September 2019

मैं क्यूँ सोचता हूँ तुम्हे !


मैं क्यूँ सोचता हूँ तुम्हे !

क्यूँ सोचता हूँ मैं तुम्हे आज बताना है तुम्हे ; 
जरा पास आओ क्यूँ सोचता हूँ तुम्हे !
तुम्हारी खनक भरी हंसी जब गूंजती है ;
मेरे कानो में तब सोचता हूँ मैं तुम्हे !
तुम्हारा अक्स मेरे दर-ओ-दिवार पर ; 
जब उभर आता है तब सोचता हूँ तुम्हे !
रात के अँधेरे में चाँद की चाँदनी बनकर ;
जब मेरे ख्यालों की छत पर आती हो तुम ! 
मेरी दी हुई वो पहली पायल पहन कर 
तब मज़बूर हो कर सोचता हूँ मैं तुम्हे !
घने काले बादल जब घिर आते हैं और उन 
बादलों से रिसकर बूंदों के स्वरुप गिरती हो तुम !  
मुझ पर तो भीगा-भीगा मैं ऊष्मा की तलाश ; 
में खोजता हूँ तुम्हे तब सोचता हूँ तुम्हे !  
जब सुबह की पहली किरण के स्वरूप मेरे ; 
सिरहाने पर आकर मूझे छू लेती हो तुम !
बिलकुल गुनगुने अहसास की तरह 
तब मज़बूर होकर सोचता हूँ तुम्हे !
और इतना कुछ घटित होने के बाद भी ;
जब कभी खुद को बिलकुल तन्हा पाता हूँ !
क्यूँ सोचता हूँ मैं तुम्हे आज बताना है तुम्हे ; 
जरा पास आओ क्यूँ सोचता हूँ तुम्हे !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !