Monday, 2 September 2019

उत्तकंठ अभिलाषा !


उत्तकंठ अभिलाषा !

तुम गूंजने लगती हो 
इस देह व आत्मा रूपी 
मेरे समेत अस्तित्व के 
ब्रह्माण्ड में ! 
बिलकुल मंदिर में बजती 
घंटियों की तरह और धरती 
की तरह काटने लगती हो  
चक्कर मेरे मैं  के चारो 
ओर !
मैं से हम बनाने की 
उत्तकंठ अभिलाषा लिए 
तुम उस पल में एक 
योगाभ्यासिनी के स्वरुप 
होती हो !
और मैं होता हूँ तुम्हारा 
वैदिक मंत्र जिसे उच्चारित 
कर तुम पा लेती हो मेरा 
समूल ! 
और एहसास भर देती हो 
मेरे अंदर सम्पूर्णताः का 
फिर उस सुबह स्वर 
गुंजारित प्रतीक्षारत हो 
उठता हूँ !  
उसी मौन का जो मुझमे
जगाती है तुम्हारे प्रेम की 
आकंठ प्यास !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !