उत्तकंठ अभिलाषा !
तुम गूंजने लगती हो
इस देह व आत्मा रूपी
मेरे समेत अस्तित्व के
ब्रह्माण्ड में !
बिलकुल मंदिर में बजती
घंटियों की तरह और धरती
की तरह काटने लगती हो
चक्कर मेरे मैं के चारो
ओर !
मैं से हम बनाने की
उत्तकंठ अभिलाषा लिए
तुम उस पल में एक
योगाभ्यासिनी के स्वरुप
होती हो !
और मैं होता हूँ तुम्हारा
वैदिक मंत्र जिसे उच्चारित
कर तुम पा लेती हो मेरा
समूल !
और एहसास भर देती हो
मेरे अंदर सम्पूर्णताः का
फिर उस सुबह स्वर
गुंजारित प्रतीक्षारत हो
उठता हूँ !
उसी मौन का जो मुझमे
जगाती है तुम्हारे प्रेम की
आकंठ प्यास !
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