कई बार सोचता हूँ
तो लगता है की,
सच का स्वरुप तो
एक होता है पर ,
हम दोनों के लिए
दो अलग-अलग ही रहा ,
जहा सच के स्वरूप
दो हो वंहा समय
अपनी बात कुछ
इस तरह से कह
जाता है कि......
वह बदल देता है
रिश्तों के मायने ,
फिर आखिर कैसे टिके
वो रिश्ते जिनमे सच
के स्वरुप दो होते है ,
ऐसे रिश्ते कहा तक
निभ सकते है ?
तो लगता है की,
सच का स्वरुप तो
एक होता है पर ,
हम दोनों के लिए
दो अलग-अलग ही रहा ,
जहा सच के स्वरूप
दो हो वंहा समय
अपनी बात कुछ
इस तरह से कह
जाता है कि......
वह बदल देता है
रिश्तों के मायने ,
फिर आखिर कैसे टिके
वो रिश्ते जिनमे सच
के स्वरुप दो होते है ,
ऐसे रिश्ते कहा तक
निभ सकते है ?
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