Sunday, 17 December 2017

हीर-राँझा

प्रेम तुमसे है 
मुझे कुछ कुछ
हीर-राँझा सा ही ,
अदृश्य अपरिभाषित
अकल्पित है सीमायें 
इसकी कैसा ये आकर्षण 
जो विकर्षण की हर सीमा 
तक जाकर भी तोड़ आता है  
दूरियों की सभी बेड़ियाँ ;
और समाहित कर देता है 
मुझे तुझमे कुछ ऐसे की 
सोचता हु तुम्हे अब पुकारू 
मैं भी हीर बोल कर 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !