नामांकरण !
निष्प्राण ह्रदय की दहलीज़
पर अनुभूतियों के मानचित्र
विद्रोह कर अपना अस्तित्व
संजोने लगते है !
विवश होकर अभिव्यक्तियों
के काफिले भी उसके साथ साथ
चलने लगते है !
ये देख ये अश्कों के नगीने भी
जैसे एक एक कर बिखरने उनकी
राह को भिगोने लगते है !
फिर दिल के मलाल भी अनुबंधित
होकर आक्रोश की तलहटी में
एकत्रित होने लगते है !
तब भावाग्नि के उच्च ताप से
पिघलकर शब्द भी जैसे स्वतः
ही टपकने लगने है !
फिर तुम उनका नामांकरण करती
हो और उसे "गुस्सा" कह कर पुकारती
हो तब तो जैसे दिल रोने ही लगता है !
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