Tuesday 25 February 2020

प्रेम की ऊष्मा !


प्रेम की ऊष्मा !

जमा हुआ था 
हिमालय सा मैं  
सीने में थी बस 
बर्फ ही बर्फ 
ना ही कोई सरगोशी
ना ही कोई हलचल
सब कुछ शांत सा 
स्थिर अविचल सा 
फिर तुम आई 
स्पर्श कर मन को 
अपने प्रेम की ऊष्मा 
उसमें व्याप्त कर दी 
बून्द बून्द बन 
पिघल पड़ा मैं 
बादल बन कर 
बरस पड़ा मैं 
बादल से सागर 
बनने की ओर 
अग्रसर हूँ मैं !  

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !