पाक रूहें !
ऑंखें सुराही बन
घूंट-घूंट चांदनी को
पीती रहीं !
इश्क़ की पाक रूहें
सारे अनकहे राज
जीती रहीं !
रात रूठी रूठी सी
अकेले में अकेली
बैठी रही !
और मिलन के
ख्वाब पलने में
पलते रहें !
नींदें उघडे तन
अपनी पैहरण खुद
ही सीती रही !
हसरतों के थान को
दीमक लगी वक़्त की
मज़बूरियों की !
बेचैनियों के वर्क
में उम्र कुछ ऐसे ही
बीतती रही !
ऑंखें सुराही बन
घूंट-घूंट चांदनी को
पीती रहीं !
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