मैं यु ही नहीं
आता जाता गुनगुनाता ...
इठलाता हँसता और हंसाता ...
वो पल जो बीतते है
साथ तुम्हारे ...
वो ही तो है
मेरे अन्दर दहकते...
दह्काते मचलते...
मचलाते मेरे
मन को कुछ यु
जैसे तुम बसी हो
मेरे अंदर एक खुशगवार
मौसम की तरह
कभी दिसंबर की
ठण्ड सी रजाई में दुबकी
कभी अप्रैल की तरह बसंत
सी खिली खिली
कभी मई और जून
की तरह चिलचिलाती
तो कभी अगस्त के
सावन की तरह
फुहारे बरसाती
मैं यु ही नहीं
आता जाता गुनगुनाता ...
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