नज़रें देखना चाहती है !
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पहले पहल किसको पता
होता है क्यों ये आँखें बार
बार और एक सिर्फ उसको
ही क्यों देखना चाहती है;
क्यों आँखें सिर्फ एक उसको
होने देना नहीं चाहती अपनी
इन नज़रो एक पल को भी
ओझल है;
पर यही आदत कब सेंध लगा
कर बस जाती है दिल में बनकर
चाहत पता ही नहीं चलता है;
जब तक की लोग ना पूछने लग
जाए की तुम्हे हुआ क्या है और
उस दिन आकर जब वो देखता है;
खुद को दर्पण में तो खुद को
ही नहीं पहचान पाता है जैसे
किसी अजनबी ने कब्ज़ा कर
लिया हो उसके व्यक्तित्व पर;
उसके उस चेहरे पर और वो
चेहरा तो उस चेहरे जैसा है
जिसको मेरी ऑंखें बार बार
देखना चाहती है !
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