सुकोमलता से भरी प्रकृति
किस प्रकार सृजन की प्रक्रिया से
गुजरती है इससे शायद ही कोई
पूरी तरह परिचित हुआ है अब तक
कुछ ना कुछ तो स्वयं प्रकृति से भी
छूट ही जाता है जब वो निढाल हुई
होती है तब वो किस किस
परिस्थिति से गुजरती है
शायद उसने भी सृजन के पहले
इसकी कल्पना नहीं की होती है
तभी तो वो सब कुछ सहज सह लेती है
आँख बंद होने की प्रक्रिया से लेकर
सिसकियाँ निकलने तक में और
धीमी गति से लेकर बढ़ती बलगति तक
सुकोमल कसाव से लेकर निर्मम
व कठोर कसाव तक की प्रक्रिया में
भी वो अद्भुद सुख की अनुभूति के
साथ साथ पीड़ा सहकर सृजन करती है
शायद ही कोई महसूस कर सकता है
की कठोरता को किस प्रकार सुकोमलता
तरलता में परिवर्तित कर देती है
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