Saturday, 10 June 2017

क्षितज के पार 



तुम्हारा हाथ
एक बार फिर से 
थाम कर निकल  
पड़ता हूँ उस  
क्षितज के पार 
जहाँ धरती -गगन 
मिलते नहीं 
लेकिन मिलते से 
प्रतीत तो होते हैं
ठीक वैसे ही जैसे
मिलने से प्रतीत
तो होते है लेकिन 
मिलते नहीं 

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