Friday 13 March 2020

दर्द का हलाहल !


दर्द का हलाहल ! 

मैंने सोचा कि पी लूँ 
ये सारा का सारा दर्द 
कहीं तुम ना पी लो 
पर क्या पता है तुम्हे 
फिर मेरा मन भी ठीक  
वैसे ही पिघलता रहा 
जैसे शमा पिघलती है 
जैसे शिव ने पिया था 
हलाहल तो कंठ हुए थे 
उन के भी नील कंठ 
पर मैं तो ठहरा महज़
एक इंसान उस हलाहल 
ने तोडा और मोड़ा है 
मेरे अंदर के एहसासों को 
क्या तुम उन एहसासों को
फिर से सजा पाओगी बोलो !  

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !