Tuesday, 10 March 2020

उमंगो का फागुन !


उमंगो का फागुन !

प्रभातकाल के चित्‍ताकर्षक 
दिनकर सा ही तो है मेरा प्रेम 
जो आकांक्षा के अभीष्ट का 
रक्तवर्ण लिये निकलता है 
प्रतिदिन तुम्हारे अस्तित्व के 
उस असीमित आसमान पर
अपनी धरा को सदैव हर हरी  
रखने की ही अभिलाषा लिए 
रंग बिरंगा और गाढ़ा है 
मेरे उमंगो का ये फागुन 
तभी तो इसने अभी तक नहीं 
चढ़ने दिया कोई और रंग तुम पर 
और जो रंग उतर जाए धोने से 
वह रंग भी भला कोई रंग होता है  
मैं तो रंगूँगा तुम्हें अपने प्रेम के सुर्ख 
रक्तवर्ण से जो कभी उतरेगा नहीं
फिर इसी रक्तवर्ण के रंग में  लिपट कर 
तुम आना मेरे द्वार और इसी सुर्ख रक्तवर्ण 
में लिपट कर जायेंगे दोनों साथ एक जोड़े में 
ये रंग जो जन्मों तक अक्षुण्ण रहेगा 
और रंगो के अनगिनत समन्दर समाए 
होंगे मेरी उस छुअन में जो तुम अपने 
कपोलों पर हर दिन महसूस करोगी 
तब सैंकड़ो इंद्रधनुष सिमट आऐंगे 
तुम्हारी कमनीय काया पर और फिर  
मैं बजाऊँगा उस दिन चंग और तुम 
गाना अपने प्रेम का अमर फाग 
लोग पूछे तो गर्व से कहना उस दिन 
अपने प्रेम का रंग आज डाला है 
मेरे पिय ने मुझ पर ! 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !