साँझ ढले जाकर
खड़ा होता हु
सागर किनारे
सुनता हु उसकी
व्याकुलता नदी से
मिलने की और आकाश
को देखता हु बैचैन होते
धरती के लिए जवाब में
धरती को भी देखता हु
तरसते अपने आकाश के लिए
रात आती है इन सब बैचैन व्याकुल
प्रेमियों के लिए आँखों में
आंसुओं की जगह उम्मीद
के तारे लिए ताकि वो सब मिल कर
अपने प्रेम को एक आयाम दे सके
दिन के उजाले में
No comments:
Post a Comment