मैं सूरज सा चाँद बन जाता हु !
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भर जाती है अक्सर
आवाज़ उसकी जब
वो मेरे दर्द की दास्ताँ
दूर बैठी-बैठी भी सुनती है
और मैं उसमे से भी निकाल
लेता हु कुछ नज्में और रच
देता हु एक नयी प्रेम कविता
जिसे सुनते ही वो खुद को
रोक नहीं पाती और वो बस
भागी-भागी चली आती है
पास मेरे और मैं अपनी बाहें
फैला देता हु उसे अपनी
आगोश में भर लेने के लिए
वो धूप सी आती है छाँव
बनने की आरजू में मेरे लिए
मेरे पास और मैं सूरज सा
तपता दिन भर उसके लिए
उस पल चाँद बन जाता हु !
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