विधाता की लेखनी
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हर बार तुमसे
हर बात कहने
को दिल चाहता है,
कभी खामोश हो
जाने को जी चाहता है,
तो कभी तुम्हारे कहकसो
में मेरी पनाह को तलाशने
को जी चाहता है और कभी
चाहता है रहना केवल बुने
स्वप्नों में और कभी ये दिल
चुनता है चंद पल नितांत ही
अकेले के मानो वो है तेरे सबनम
की तासीर के और कभी सोचता हु
की मैंने जो कोरे कागज पर लिखे
इतने अविनाशी अक्षर तेरी ही स्याही
से वो अविनाशी अक्षर तेरी हथेलिओं
पर लिख दिए होते तो विधाता भी
मज़बूर हो जाती बदलने को मेरी
तकदीर जो उसने लिख दी थी
बिना जांचे मेरे इन प्रेम कर्मो को !
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