तुम्हारा इकरार
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मैं तो सिर्फ अपनी कलम
में भरी तुम्हारी ही स्याही
से कोरे पन्नो पर अपने प्रेम
की बेताब सी लकीरें खींचता हु
उन लकीरों में कुछ मुमकिन सी
आरज़ू भरता हु और जीता हु कुछ
नेक पल उन बेहद खामोश लम्हों
में जिससे मेरी तमाम उपेक्षाये
तुम्हारी ओर मूड जाती है और
फिर वो तुमसे ना जाने कैसे और
कब तुम्हारा इकरार लिखवा लाती
है उसके बाद जब तुम मेरे सामने
आ जाती हो तब मेरे मन में जो
भावों की माला उमड़ती है उन्हें
मैं अपने शब्दों में पीरो कर उसे
मैं तुम्हे पहनाकर तुम्हारा स्वागत
अपने ह्रदयद्वार पर करता हु !
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