Wednesday, 10 May 2017

तुम प्रेरणा हो मेरी











तुम प्रेरणा हो मेरी,
तुम धारणा हो मेरी
अकेलेपन के जंगलों में
अचानक से मिले
इक कल्पतरु से छन कर
आती हुयी छांव हो मेरी...
गयी शाम
एक हल्का सा बादल
समेट रखा था,
बड़ी शिद्दत से
जो बारिश की कुछ बूंदें
निचोड़ी उस बादल से,
लम्हा-लम्हा जोड़ कर जो की
तुम वो साधना हो मेरी...
पर मैं कौन हु तुम्हारा
ये आज तक नहीं
जान पाया हु मैं 

No comments:

स्पर्शों

तेरे अनुप्राणित स्पर्शों में मेरा समस्त अस्तित्व विलीन-सा है, ये उद्भूत भावधाराएँ अब तेरी अंक-शरण ही अभयी प्रवीण-सा है। ~डाॅ सियाराम 'प...