Saturday, 8 July 2017

तुम्हें आज न सोचूं...


कई बार सोचता हूँ..
कि तुम्हें आज न सोचूं...
आज कुछ और
सोचूं....मैं..,
सच..कुछ और 
सोचा भी..
न जाने फिर भी...
..तुम..
जाड़ों की रात की 
सर्द हवा सी
चली ही आती हो 
फिर उतर भी जाती हो 
कानो से होते हुए 
अंदर और फिर 
मेरा सोचा धरा 
का धरा रह जाता है 

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