Monday, 10 July 2017

तुम्हारी हंसी की सीढियां..

कई बार सोचता हूँ..
कि तुम्हें आज न सोचूं...
आज कुछ और
सोचूं....मैं.. पर     
तुम्हारी आवाज़...
किसी ना किसी तरह
पहुंच ही जाती है 
मेरे कानो से होते हुए 
मेरे मस्तिष्क में 
और मैं भूल जाता हूँ 
सुनते-सुनते
कि क्या कह रही हो तुम ..
अगर टोक के बीच में से 
पूछ लो कभी तो...
नहीं बता पाऊंगा ...
कहाँ थी ..तुम..
तुम्हारी हंसी की सीढियां..
उतरता चढ़ता रहता हूँ..
अकेले  में अक्सर 

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