हर साँझ पहर जब
देवालय देवालय में
दीपक जल सिहरता है !
तब तब लौ उसकी
उठ उठ कर मानो
ऐसे लपकती है !
मानो जैसे कोई
विकल विरह तब
तब पिघलता है !
साँझ के धुंधलके में
क्षण-क्षण संकोचित
संगम होता रहता है !
फिर नदी सागर
को खुद में जैसे
डुबोती है !
प्राणों में प्रतीक्षातुर
प्रीत लिए दिन फिर
रात में खो जाता है !
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