Friday, 22 May 2020

विकल विरह !


हर साँझ पहर जब
देवालय देवालय में
दीपक जल सिहरता है !

तब तब लौ उसकी
उठ उठ कर मानो
ऐसे लपकती है !

मानो जैसे कोई
विकल विरह तब
तब पिघलता है !

साँझ के धुंधलके में
क्षण-क्षण संकोचित
संगम होता रहता है !

फिर नदी सागर
को खुद में जैसे
डुबोती है !

प्राणों में प्रतीक्षातुर
प्रीत लिए दिन फिर
रात में खो जाता है !

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !