Wednesday 29 December 2021

मिलन की रुत !

 मिलन की रुत से

विरह के दिनों तक
का फासला कितना
लम्बा है

और वो फ़ासला
कुछ ऐसा है जिसको
उम्र का अंतराल भी
तय न कर पाता है

विरह की रुत खत्म
होने तक कहीं ऐसा
ना हो कि आरज़ू ही
मर जाए

आहों के चौराहे का
मंज़र क्षत विक्षत हैं
जिन्हे देख कर ऑंखें
भीगी ही रहती है

आइने से कहती है
किस लिए सँवरती हों
क्यूँ श्रृंगार करती हूँ

क्यूँ उस अजनबी
मुसाफ़िर का मैं
इंतिज़ार करती हूँ

क्यूँ रोज़ रोज़ जीती हूँ
क्यूँ रोज़ रोज़ मरती हूँ !

शब्दांकन © एस आर वर्मा

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !