हम प्राय ही अपने
कृत्यों की पुनरावृत्ति
करते रहते हैं;
जैसे शब्दों की
भावनाओं की
अभिव्यक्तियों की
और इसी पुनरावृत्ति
में हम गढ़ते हैं;
कई नई कविताएँ
भरे पूरे उत्साह से
जो लिए होती है;
नए नए आकर्षण
नए नए रिश्ते
नए नए संसाधन
नए नए प्रयोजन;
ऐसा भी नहीं कि
पुनरावृत्ति नीरस
और उबाऊ नहीं होती
कई बार होती है परन्तु
तब तक नहीं नहीं लगती
जब तक उनमें से नवीनता
जन्मती रहती है !
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