Friday 22 September 2017

धरती को तरसते देखता हु


साँझ ढले जाकर
खड़ा होता हु
सागर किनारे
सुनता हु उसकी
व्याकुलता नदी से
मिलने की और आकाश
को देखता हु बैचैन होते
धरती के लिए जवाब में
धरती को भी देखता हु
तरसते अपने आकाश के लिए
रात आती है इन सब बैचैन व्याकुल
प्रेमियों के लिए आँखों में
आंसुओं की जगह उम्मीद
के तारे लिए ताकि वो सब मिल कर
अपने प्रेम को एक आयाम दे सके
दिन के उजाले में 

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प्रेम !!

  ये सच है  कि प्रेम पहले  ह्रदय को छूता है      मगर ये भी उतना  ही सच है कि प्रगाढ़   वो देह को पाकर होता है !