Thursday, 9 November 2017

मेरी रातें गुजर जाती है

मेरे आँसुओं की बारिश 
से भीगी मेरी ही रातों में 
मेरी ही खिड़की के झरोखों 
से आती हुई रोशनी के बीच
हलके अँधेरे और हलके उजाले 
की छुटपुट आहटों के बीच हमेशा
लगता है जैसे तुम आयी हो ?
फिर सिलसिला शुरू होता है 
तुम्हे खोजने का पुकारने का 
तुम कंहा हो और ये सिलसिला 
अलसुबह तक यु ही चलता रहता है 
फिर कंही जा कर एहसास होता है 
वो मेरा भ्रम था तुम तो आयो ही नहीं 
भीगी पलकों और रुंधे गले के साथ 
लौट आता हु अपने बिस्तर पर  
कुछ इस तरह गुजर जाती है मेरी रातें 

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