Saturday, 1 June 2019

मोहोब्बत जमीं की !


क्योँ भागती-दौड़ती सी ज़िन्दगी रुकी हुई है ,
क्या ये मेरे लिए ही रुकी हुई है ;

परछायी को तो कब का विदा कर दिया गया है ,
फिर देह क्योँ अब तक वहीँ रुकी हुई है ;

आँखों से ना-उम्मीद होकर के ख़्वाबों की ताबीर ,
पलकों की नम कोरों पर रुकी हुई है ;

बारिशों का लिहाज़ करती है ये हवाएं ,
वो यूँ ही तो नहीं रुकी हुई है ;

मैं आने वाले कल से मिल आया हूँ ,
दुनिया को देखो यहीं रुकी हुई है ;

इश्क़ आसमां का होकर भी जमीं पर उतर आया है ,
मोहोब्बत जमीं की होकर भी दहलीज़ के अंदर रुकी हुई है !

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