मौन ! !
अखर जाता है ,
अक्सर मौन हो जाना
टीस दर्द और कसक
करती तो रहती है ;
व्याकुल पर कितना
कुछ चलता रहता है ;
इस मन के भीतर
पर खालीपन अंतस
का जाने क्यों खुद को
भी अक्सर जाता है ;
क्यों अखर !
तेरे अनुप्राणित स्पर्शों में मेरा समस्त अस्तित्व विलीन-सा है, ये उद्भूत भावधाराएँ अब तेरी अंक-शरण ही अभयी प्रवीण-सा है। ~डाॅ सियाराम 'प...
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